ग़ज़ल /मनोज धीमान .
पाठकों की नज़र है वरिष्ठ पत्रकार, कवि, कथाकार और उपन्यासकार मनोज धीमान की नई ग़ज़ल :
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मेरी ज़िन्दगी किसी ग़ज़ल से कम नहीं
ये कारवां है वो जो कभी रुका ही नहीं
चलो कहीं और चल कर बस्ते हैं
इस शहर में कोई हमेशा रुका ही नहीं
इसे ख़्वाबों का शहर कहते हैं
सुबह होते यहाँ कोई रुका ही नहीं
पत्थर मारने वाले पत्थर दिल हो गए हैं
पत्थर मारने से तभी तो कोई रुका ही नहीं
जितना चाहो सजदा कर लो तुम
वक़्त किसी के लिए कभी रुका ही नहीं
कोशिशें तमाम कर लो बेशक तुम
जिसने जाना है वो कभी रुका ही नहीं
- मनोज धीमान