कविता / किरदार / शैली वाधवा (शैलजा) .
बिगड़े इस कदर कि फिर बन ही ना पाए,
बात इतनी ना बढ़ा देना..
कि मैं सब कुछ लुटाए बैठा हूं,
सोच समझकर मेरे ज़ख्मों को हवा देना
मुझे तो ख़ैर बेवफाई रास आई है,
तुम कहीं और जाके वास्ता वफा का देना
अजीब दस्तूर है तेरे शहर का,बेकसूरों को सज़ा देने का,
मेरे जैसे सरफिरों को मगर, खता बताके सज़ा देना
अहम किरदार हूं मैं इस तमाशे का,
आए जो मेरी बारी, बता देना
चंद सवाल हैं मेरे तुझसे, पास बैठो तो करूंगा
हर बार की तरह इस बार भी, नज़रें ना चुरा लेना
बोहत बोझ दिल में लिए बैठा हूं,
बहल जाए किसी बात से, इसको दुआ देना
और यही दस्तूर है नए दौर का, इसी पे चला करो,
किसी के लिए कुछ करो तो, फौरन जता देना
बागी कौन है इस शहर में, कोई पूछे तो
बेधड़क होके, मेरा पता देना
शैली वाधवा ( शैलज़ा)