कविता / पत्नी / राजू जेटली 'ओम' .
इस गृहस्थी का,
तुम ही अंत, तुम ही मध्य, तुम ही हो आगाज़ भी,
तुम ही हमराह, तुम ही हमसफर, तुम ही हो हमराज़ भी,
तुम ही जीवन सफ़र के हर दुख का हो इलाज भी,
सब सह जाती हंसते हंसते, होती नहीं पल भर को नाराज़ भी l
तुम ही वंदना, तुम ही अर्चना, तुम ही हो आराधना भी,
तुम ही श्रृंगार, तुम ही कामना, तुम ही हो सुख साधना भी,
तुम ही एहसास, तुम ही विश्वास, तुम ही मेरी कल्पना भी,
तुम ही प्यार, तुम ही इश्क़, तुम मेरी प्रेम आशना भी l
तुमने अपने खून पसीने से इस गृहस्थी को सींचा भी,
और सावित्री बन पति को मौत के मुंह से खींचा भी,
तुमने हर वर्ष व्रत रख रख मेरी उम्र बढ़ाई भी,
और व्रत की मेरी ज़िद को बार बार है रोका भी l
कितनी बातें याद करूँ मैं, पल पल में तुम समायी हो,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं, जिनमे बयां की सच्चाई हो,
नहीं जानता इस जन्म तुम्हारा ये ऋण कैसे चुका मैं पाऊंगा,
अगले जन्म तुम पति बनना, पत्नी बन मैं आऊंगा l
राजू जेटली "ओम"