कठिन विषय की खूबसूरत पेशकारी है उपन्यास 'शिकरा यार' / मधु  वर्मा.

रोहित वर्मा का उपन्यास 'शिकरा यार' पढ़ते हुए पाठक को ऐसा महसूस होता है जैसे वो कोई चलचित्र देख रहा हो। कहानी का नायक निरंतर अपनी गुसैल और बेवफ़ा पत्नी के कोपभाजन का शिकार होता रहता है जैसे किसी शिकरे जैसे ज़ालिम पक्षी से प्यार करने वाला उसके द्वारा मास नोचने के बाद भी उससे प्रेम करता रहता है। नायक का इल्ज़ामों को झेलते हुए जेल जाना और गुनाहगार ना होते हुए भी स्वयं को गुनाहगार मानने की जिद्द।  एक महिला वकील का उसको बरी करवाना और घर लौटने पर ताला मिलना। अर्थात दोषी ठहराने वाली नायक की पत्नी का घर छोड जाना, घर का अस्त व्यसत मंज़र। सारी कथा धाराप्रवाह चलते हुए पाठक को उपन्यास के साथ बांधकर चलती है। शब्दों का प्रयोग ऐसे किया गया है कि उपन्यासकार की अपनी विधा पर पकड़ स्पष्ट नज़र आती है। नायक के वैवाहिक जीवन में होने वाली उथल पुथल समन्वय की कमी के कारण होने वाली भयंकर क्षति का बखान करते हुए एक संदेश देती है कि बेवजह शक और बेवजह गुस्सा मनुष्य को बरबाद करता है।

 'शिकरा यार' एक उमदा रचना है और उपन्यासकारी में एक नया प्रयास। रोहित वर्मा ने एक कठिन विषय को बडी सहजता के साथ निभाया है, जिसके लिए वह बधाई का पात्र है।