तुम आदत से बन गए हो!.

 


तुम आदत से बन गए हो,

जैसे सुबह की पहली किरण, 

जो मेरी आँखों में समा जाती है।

जैसे चाय की पहली चुस्की,

जो दिन की शुरुआत को मीठा बना देती है।


तुम आदत से बन गए हो,

जैसे वो पुरानी किताबें,

जिनके पन्ने हर बार नई कहानी सुनाते हैं।

जैसे वो पसंदीदा गाने,

जो हर ग़म को छुपा लेते हैं।


तुम आदत से बन गए हो,

जैसे सर्द शाम की हल्की-सी ठंड,

जो मई जून-सा  सुकून दे जाती है।

जैसे वो पुरानी गली,

जो हर बार नया रास्ता दिखाती है।


( ललित बेरी)