पहले क्यों ना समझा इन्सान .

अक्षम हो गए थे यह कान

अब सुनते है रोज़ पंछियों के गान

इस आलम ने यह समझाया 

पहले क्यों ना समझा इन्सान 


हवा पहले भी बहती थी

खुल कर सॉस ना आती थी

आभास है अब पर्वतीय स्थल जैसा

पहले भी लुधियाना ही रहती थी


सूरज अपनी गति से चलता

खिला फूल है सुंदर लगता

नज़र आते है तारे टिमटिमाते

दिल इनसे है बातें करता


चुकानी पड़ी इतनी बड़ी क़ीमत 

क्यों हम पहले नहीं समझे

यह प्रदूषण फिर से ना हो

आअो आज यह वादा करते


                                  - सरू जैन