खुली आँख का स्वपन .
उड़ते पछीं देख मचला यह मन
मंद पवन के झोकों में ख़ुशबू लेता
खिले फूल देख खिला यह मन
देख रहा है पत्तियों से पानी झरता
सूरज चुपचाप है आता
चाँद भी आ कर चांदनी फैलाता
दिन के बाद रात है आती
चक्र यही अनवरत है चलता ।
रैन, भोर की सुंदरता देख
मन तृप्त हुआ, झूम गया
बाहर तो कोई गीत नहीं था
भीतर किस ने राग सुनाया
यह जग तो है सब माया
खुली आँख का स्वपन सजाया
पाना है अगर आनंद सरोवर
सरू तू ढूँढ उसे - - तू खोज उसे
जिसने यह सब खेल रचाया
जिसने यह सब खेल रचाया ।।
- सरु जैन