खुद में क़ैद .

आज खुद से नासाज़ खड़ा हैं,

जो कभी गुरूर में घूमता था।

आज खुद में क़ैद हैं,

परिंदों की पालने की चाहत रखने वाला।


कितना मग़रूर और मकरूर है,

जो हर जगह नफ़ा ढूढ़ता था।

आज खुद को लुटाये खड़ा हैं,

परिंदों के परों को काटने वाला।



किस कद्र बेहिज़ और बेहया है,

जो जामवंत और गरुड़ को पूजता था।

आज अपनी ही तरक्की में डूब गया हैं,

परिंदों की मिसालें देने वाला।


किस तरह की ये रुसवाई और बेवफ़ा है,

जो पक्षियों से खतों को पहुंचाता था।

आज हिमाक़त के नशे में चूर, मर गया हैं,

परिंदों की कहानियाँ सुन आगे बढ़ने वाला।


कुदरत का ही हिस्सा खुद है,

जो खुद को विश्व विजयी बताता था।

आज अपनी खाक़ में पड़ा हैं,

परिंदों की कुदरत को कुचलने वाला।


--कार्तिका सिंह