जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि.
इस संसार में सभी तो कुरूप है, इस संसार में हर चीज तो सड़ जाती है, इस संसार में हर चीज तो कुरूप हो जाती है।सुंदरतम स्त्री भी एक दिन कुरूप हो जाती है। और जवान से जवान आदमी भी एक दिन मुर्झा जाता है, सुंदर से सुंदर देह भी तो एक दिन चिता पर चढ़ा देनी पड़ेगी। करोगे क्या? यहां सुंदर है क्या? इस जगत की असारता को ठीक से पहचानो।
इस जगत की व्यर्थता को ठीक से पहचानो। ताकि इसकी व्यर्थता को देखकर हम भीतर की सीढ़ियां उतरने लगो। सौंदर्य भीतर है, बाहर नहीं। सौंदर्य स्वयं में है और जिस दिन हमारे भीतर सौंदर्य उगेगा, उस दिन सब सुंदर हो जाता है। हम जैसे, वैसी दुनिया हो जाती है।
जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि! हम सुंदर हो जाओ, और हमारे सुंदर होने का अर्थ, कोई प्रसाधन के साधनों से नहीं; ध्यान सुंदर करता है। ध्यान ही सत्यं शिवं सुंदरम् का द्वार बनता है। जैसे-जैसे ध्यान गहरा होगा, वैसे-वैसे हम पाएंगे, हमारे भीतर एक अपूर्व सौंदर्य लहरें ले रहा है। इतना सौंदर्य कि हम उंडेल दे तो सारा जगत सुंदर हो जाए !
शब्द तो वही हैं, प्रतीक वही हैं; लेकिन जैसे ही हम बदल जाते हैं, हमारे शब्दों का अर्थ बदल जाता है – हमारे जीवन के ढंग, हमारे जीवन की सुरभि बदल जाती है। सब कुछ वैसा ही रहता है, फिर भी कुछ भी वैसा नहीं रह जाता। सब कुछ ऊपर-ऊपर वैसा ही होगा। हम कभी बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाएंगे, कभी हमारे भीतर का कबीर भी जागेगा ही। आखिर कितनी देर लगेगी। सब ऊपर-ऊपर ऐसा ही होगा, जैसा आज है – दुकान चलेगी, घर काम होंगे, बच्चों का पालन-पोषण भी वैसे ही होगा, भूख लगेगी; खाना खाएंगे, नींद लगेगी, सोयेंगे, सब ऊपर-ऊपर वैसा ही होगा – पहली बात। लेकिन भीतर-भीतर सब बदल जाएगा – दूसरी बात। हम बदल जाएंगे और हमारे बदलने के साथ जीवन के सारे अर्थ और जीवन का सारा काव्य, जीवन की सारी प्रतीति बदल जाएगी।
ये बात सिर्फ ओशो या कबीर जी ही नही, बल्कि हरेक आध्यात्मिकता के साथ जुड़ा हुआ व्यक्ति है। क्योंकि यही जीवन का सार है, जिसे स्वीकार करना और अपने जीवन मे उतारना हमारे भीतर उस अलौकिकता का मार्ग खोलता है। यहां आधा गिलास भरा और खाली वाला प्रंसग भी सार्थक हैं क्योंकि वो भी हमारी दृष्टि द्वारा उपजी सृष्टि पर ही निर्भर करता है। संकल्प से ही सृष्टि की रचना होती है।
-कार्तिका सिंह