कविता -/क्यों हम दफ़न करें / दीपक ठाकुर.

 


होना ही है इक दिन ख़ाक,

क्यों हम फिक्र करे,

वक़्त से पहले अपनी चाहत को,

क्यों हम दफ़न करें।


मंज़िल मिले या ना मिले,

ये तो वक़्त बताएगा,

वक़्त से पहले,

कोशिशों को अपनी,

क्यों हम दफ़न करें।


इरादे हैं नेक,

तो जमाने की हम क्यों फिक्र करें,

सेवा की आदत को,

क्यों हम दफ़न करें।

 

हो गए जुदा उनसे,

कोई बात नहीं,

फिर से मिलने की उम्मीद को ,

क्यों हम दफ़न करें।


कल भी मुस्कराते थे,

आज भी मुस्कराते हैं,

आगे भी मुस्कराते रहे गए,

हालातों की मार से,

अपनी प्यारी मुस्कान को,

क्यों हम दफ़न करें।