ख़्वाहिशों के मायने / मनोज धीमान.

बरसों से तलाश थी कि मिल जाये सुकून भरा इक लम्हा 

रूह निकल जाने के बाद कम्बख़्त आया वो इक लम्हा  


देखिये जनाब, क्या अजीब वक़्त आया है 

परिंदा भी हवा में उड़ते ही शेर बन रहा है 


अफ़सोस करना हमने अब छोड़ दिया है 

पास होकर पा ना सके अब क्या रोना है


बड़े इतराते हुए मुकद्दर का सिकंदर बनने निकले थे

वक़्त के थपेड़ों ने क्या बना दिया अब क्या बताना है   


अपनी ख़्वाहिशों के हमने अम्बार इतने लगा दिए

कि असली मायने ही ख़्वाहिशों के हमने खो दिए।


                                                  -मनोज धीमान