पदचिन्ह .
चाहती नहीं मैं चलना
किसीऔर के पदचिन्हों पर
अपने रास्ते मुझे स्वयं बनाने हैं
स्वयं में ही छिपे सारे ख़ज़ाने हैं
चली जब मैं पुरानी मान्यताओं पर
घुटन का आभास हुआ
साथ मेरे थी जो अनूठी शक्ति
उसका ना कभी एहसास हुआ
ख़ुद से रोज़ की नाराज़गी थी
पर बात बयान ना करती थी
जब ख़ुद से मुलाक़ात हुई
रहमतो की फिर बरसात हुई
अब खुदा कोई ऐसा राग छेड़े
मिट जाएँ इस आलम के अंधेरे
रोशन हो हर एक घर-आँगन
सूरज ऐसी रश्मियाँ बिखेरे!
- सरू जैन